दशवाँ अध्याय
ब्रह्मा-विष्णु को शिवजी का उपदेश
यह सुनकर ब्रह्मा और विष्णुजी ने कहा- हे प्रभो ! सर्गादि पंचकृत्य क्या है, इसका लक्षण मुझे सुनाइये। श्रीशिवजी बोले- मेरे सारे कार्य ज्ञानग्राह्य हैं, तथापि सुनो। हे ब्रह्मन् ! हे विष्णो !
१. सृष्टि
२. स्थिति
३. संहार
४. तिरोभाव
५. अनुग्रह
ये मेरे पाँच कृत्य जगत् में नित्य सिद्ध हैं। इसमें संसार के आरम्भ का नाम १ सर्ग, उसके रखने का नाम २ स्थिति, नष्ट का ३ संहार, ४ अदल-बदल उत्क्रम तिरोभाव और संसार या सर्ग से मुक्त होने का नाम ५ अनुग्रह है। यही मेरा पंचकृत्य है।
इन्हीं कर्मों के द्वारा मैं संसार का संचालन करता हूँ और इसमें जो सर्वदा मुझमें स्थित रहता है वही मुक्त है। इस पंचकृत्य को चलाने के लिये मेरे पाँच मुख हैं। चारों दिशाओं में चार और चार मुखों के मध्य में पाँचवाँ मुख है, जिसे विद्वान् जानते हैं। हे वत्सो ! तुम दोनों अपनी तपस्या से १ सृष्टि और २ स्थिति, इन दो कृत्यों को प्राप्त किया है।
ऐसे ही रुद्र और महेश ने भी संहरण और तिरोभाव ये दोनों कृत्य प्राप्त किये हैं। परन्तु अनुग्रह नाम वाला पाँचवाँ कृत्य कोई भी न पा सका और अति प्राचीन होने से तुम दोनों अपने उस कर्म को ' भूल गये। परन्तु रुद्र और महेश नहीं भूले। तब तुम्हारे भूलने से सृष्टि की स्थिति के लिये रूप, यश, कृत्य, वाहन तथा आयुधादि सबको मुझे अपने योग्य संग्रह करना पड़ा। क्योंकि तुममें मूढ़ता आ गई और महेश ने दान और रूप दोनों का संरक्षण किया।
मुर्ख अब यदि तुम चाहते हो तो मेरा ॐकार नामक मन्त्र अब से जपो, जिसके जप से तुममें मान न उत्पन्न हो। क्योंकि मेरे निकला एवं उत्पन्न हुआ ॐ कार मेरा मन्त्रोपदेश और बोधन है। यही मेरा वाचक और मैं वाच्य हूँ। यह मन्त्र मेरी आत्मा है और इसका स्मरण करना ही मेरा स्मरण है। श्रीनन्दिकेश्वर कहते हैं कि उमा सहित शिवजी ने उत्तर की ओर मुख करके ब्रह्मा और विष्णु को इसी मन्त्र का उपदेश कर गुरु- मन्त्र दिया। तब से ब्रह्मा और विष्णु उनके आत्मा रूप हो गये और उन्होंने अपने को शिवजी को समर्पण कर दिया।
तब ब्रह्मा और विष्णु ने देवाधिदेव महादेवजी से हाथ जोड़ कर कहा- हे सर्वेश! आपको नमस्कार है। हे संसार के रचयिता, हे पाँच मुख देने वाले ! आपको प्रणाम है। जब इस प्रकार स्तुति कर दोनों ने सकल-निष्कल गुरुदेव शिवजी को नमस्कार किया, तब महादेव ईश्वर बोले- हे पुत्रो। मैने तुमसे सभी तत्त्वों का वर्णन कर यह मन्त्र भी बतला दिया है कि जिसका जप कर मेरे स्वरूप को प्रत्यक्ष जान सकते हो।
मेरा बतलाया हुआ यह मन्त्र भाग्यविधायक और सब प्रकार के ज्ञान को देने वाला है जो इसे (मार्गशीर्ष की) आर्द्रा वाली चतुर्दशी में जपता है और यदि आर्द्रा सूर्यगति की होती है तो इस एक ही मन्त्र का जाप करोड़ गुना हो जाता है। इसमें प्रातः संध्या समय मेरा दर्शन भी उक्त फल देता है। मेरे लिंग (स्तंभ) और बेर (मूर्ति) इन्हीं दोनों का पूजन करना उत्तम है। ॐकार मन्त्र से लिंग का और पंचाक्षर (शिवाय नमः) मन्त्र से बेर का (मूर्ति का) पूजन करना योग्य है। ऐसा करने से मेरा पद सुलभ हो जाता है। ब्रह्मा और विष्णु को ऐसी शिक्षा देकर शिवजी वहीं अन्तर्धान हो गये।
हर हर महादेव!